संत तुलसीदासजी






संत तुलसीदासजी एक महान संत थे। वो राम के अनन्य भक्त थे। वह हिन्दी साहित्यकार और कवि थे। उनकी कविताओं और दोहे काफी प्रसिद्ध हुए।

उनके द्वारा लिखित रामचरितमानस और हनुमान चालीसा पूरे हिन्दुस्तानमे लोकप्रिय हैं। उन्होने काफी कविताओ, दोहे और धार्मिक ग्रंथ लिखे है।

जाने बिनु न होइ परतीति।
  बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भक्ति दिढाई।
जिमि खगपति जल के चिकनाई।।


बिनु गुरु होइ कि ग्यान, 
ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान, 
सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।


दोहे और सारांश
अस कछु समुझि परत रघुराया।
बिनु तव कृपा दयालु! 
दास हित, मोह न छूटै माया।।

अब जाकर मेरी समझ में यह बात आ रही है कि आपकी कृपा के बिना आपके अनन्य भक्तोंं को मोह-माया के बंधन से छुटकारा नहीं मिल सकता।


वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुण, 

भव पार न पावै कोई।
निशि गृह मध्य दीप की बातन्ह, 
तम निवृत्त नहीं होई।।

जिस प्रकार रात के अंधेरे मेंं घर के बीच में दीपक की बातें करने से अंधकार का नाश नहीं होता, उसी प्रकार वाचिक ज्ञान मेंं अत्यंत निपुण होने पर भी कोई संसार सागर से पार नहीं हो सकता।


जैसे कोई एक दिन दुखित अति, 

असन हीन दुख पावै।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह, 
लिखे न बिपति नसावै।।

यदि कोई अति दीन दुखी, भूख से व्याकुल व्यक्ति दुख पा रहा हो, और वह अपनी भूख और अभावों को दूर करने के लिए अपने घर मे कल्पवृक्ष व कामधेनु का चित्र बना डाले, तो क्या उनकी विपत्तियों का नाश हो सकता? कभी नहीं!


षटरस बहु प्रकार भोजन कोऊ, 

दिन अरु रैन बखाने।
बिनु बोले संतोष जनित सुख खाइ, 
सोई पै जाने।।

क्या छह प्रकार के स्वाद वाले व्यजनों कि महिमा का दिन-रात बखान करने से किसी को उनका स्वाद मिल सकता हैं? बिलकुल नहीं! लेकिन जिसको वो व्यजंन खाने को मिल जाएं तो बिना कुछ बोले उनसे संतुष्टि पाने का जो आनंद उसको मिलता है, उसे वह खुद ही समझ सकता है।


जग लगि नहीं निज हृदि प्रकाश, 

अरु विषय आस मन माहीं।
तुलसीदास तब लगि जग जोनि, 
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।।

तुलसीदास जी कहते हैं कि जब तक हमारे हृदय में ज्ञान के प्रकाश का उदय नहीं होता और मन विषयों की आशा के बंधन में जकड़ा रहता है, तबतक हमें सपने में भी सच्चे सुख की अनुभूति नहीं हो सकती। हमें जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिल सकता।




माधव! मोह फांस क्यों टूटै।।

बाहर कोटि उपाय करिय, 
अभ्यन्तर ग्रंथि न छूटै।।

हे माधव, मेरे मोह के बंधन किस प्रकार टूटेंगे? यह तो बडी साफ बात है कि बाहरी कमॅकांडो जैसे करोडों उपाय करने से भी अपने अन्त:करण में स्थित अज्ञान की गांठ नहीं खुल सकती।


घृत पूरन कराह अन्तरगत, 

शशि प्रतिबिम्ब दिखावै।
इँधन अनल लगाय कल्प शत, 
औंटत नाश न पावै।।

जिस प्रकार घी से भरे कडा़ह के अंदर दिखाई देने वाली चंद्रमा की छाया सैकड़ों कल्प तक औटाने पर भी नष्ट नहीं हो सकती, उसी प्रकार बाहरी उपाय आंतरिक अज्ञान को दूर करने में असमर्थ हैं।


तरु-कोटर मँ बस बिहंग, 

तरु काटै मरै न जैसे।
साधन करिय विचार-हीन, 
मन शुध्द होय नहीं तैसे।।

जैसे पेड़ के कोटर मे रहने वाली चिडिय़ा पेड़ को काटने से नहीं मरती, वैसे ही बिना विचारे अज्ञानजनित साधनों का अभ्यास करने से मन में निमॅलता नहीं आ सकती।


अन्तर मलिन विषय मन अति, 

तन पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन, 
बल्मीकि विविध विधि मारे।।

यदि मन विषयों के मैल से अति मलीन है, तब शरीर को बार-बार नहलाने से क्या वह पवित्र हो जाएगा? जरा सोचने की बात है कि सांप की बांबी के ऊपर अनेक प्रकार से चोट पहुंचाने पर क्या बांबी मे रहने वाला सपॅ मर सकता है? हरगिज नहीं।


"तुलसीदास" हरि गुरू करुना बिनु, 

विमल विवेक न होई।
बिनु विवेक संसार घोरि निधि, 
पार न पावै कोई।।

तुलसीदास जी कहते हैं कि चाहे कोई लाख कोशिश कर ले, लेकिन नर रुप मे हरि, गुरु की करुणा के बिना विमल विवेक प्राप्त नहीं हो सकता। और बिना विमल विवेक प्राप्त किये इस संसार रुपी अथाह सागर से कोई पार नहीं हो सकता।




यह विनती रघुवीर गुसाइँ।।

और आस विश्वास भरोसो, 
हरौ जीव जड़ताई।।

हे रघुवीर, आपसे यही प्रार्थना है कि मेरा जो दूसरों पर झूठी आशा और भरोसा है, उस मेरी मूखॅता को आप हर लीजिए।


चहौं सुगति, सुमति, संपति कछु, 

ऋद्धि सिद्धि बिपुल बडा़ई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद, 
बढै़ अनुदिन अधिकाई।।

मैं मुक्ति, सदबुद्धि, धन-संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि, सांसारिक मान-मयाॅदा कुछ नहीं चाहता। बस, यही चाहता हूं कि बिना हेतु दिन-प्रतिदिन आपके श्री चरणों में मेरा अनुराग बढ़ता रहे।


कुटिल करम लै जाहि, 

जहँ-जहँ अपनी बरियाई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँडि़यो, 
कमठ-अंड की नाइँ।।

अपने भले-बुरे कमोँ के बंधन से बंधा मैं जहां भी जाऊँ, आप मुझ पर अपना स्नेह कभी न छोड़े, जैसे कछुआ दूर रहकर भी सुरति के द्वारा अपने अंडो को सेता रहता है।


या जग में जहँ लगि या तनु की, 

प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब 'तुलसीदास' प्रभु ही सों, 
होंहिं समिटि इक ठाई।।

तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में मेरे जितने भी इस शरीर के प्रेम, विश्वास और संबंध हैं, वे सिमट कर बस केवल आप से ही जुड़ जाएं।




जाके प्रिय न राम बैदेही।।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जधपि परम सनेही।।

जिन्हें राम के चरणों में प्रेम नहीं, उन्हें करोड़ों दुश्मनों के बराबर समझ कर छोड देना चाहिए, चाहे वे कितने भी नजदीकी व परम स्नेही क्यों न हों।


तज्यो पिता प्रहृलाद,

विभीषन बंधु,
भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो,
कंत ब्रज बनितन्हि,
भये मुद मंगलकारी।।

प्रभु की सच्ची भक्ति के निमित्त प्रहृलाद ने अपने पिता का, विभीषण ने भाई का, भरत ने सगी मां का, बलि ने कुलगुरु का और गोपियों ने अपने पतियों का अनुराग त्याग कर तथा प्रभु भक्ति में लगकर अपने जीवन को सफल कर लिया।


नाते नेह राम के मनियत,

सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै,
बहुतक कहौं कहाँ लौं।।

संसार के नाते-रिश्ते व सुहृद और पूजने योग्य लोगों के साथ प्रेम का निवाॅह तभी तक करना चाहिये, जब तक इनसे राम भक्ति में सहायता न मिले। सुरमा तो आंखो की रोशनी बढ़ाने के लिए लगाया जाता है, लेकिन जिस सुरमा के लगाने से आंखें ही फूट जाएं तो वह सुरमा किस काम का, इससे अधिक मैं क्या कहूं?


'तुलसी' सो सब भांति परम हित,

पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों होय सनेह राम पद,
एतो मतो हमारो।।

तुलसीदास जी कहते हैं, मेरे विचार से बस दो टूक बात यह है कि वही हमारा परम हितेषी, आदरणीय और प्राणों से प्रिय है, जिसके द्वारा राम के चरणों में हमारी प्रीति बढ़े।

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