सुरत निरत का दिवला सँजोले,
मनसा की कर बाती।
प्रेम हटी का तेल मँगा ले,
जगा रहे दिन राती।।
सतगुरु मिलिया संशय छूटा,
सैन बताई साँची।
ना घर तेरा ना घर मेरा, गावै 'मीरा' दासी।।
मोहे गुरु मिले रैदास,
सास घर ना जाऊँ।।
समय के सच्चे सदगुरु को पाकर राज रानी मीरा बहुत प्रसन्न हो गयीं और बोली कि मैं अब अपनी सास के घर न जाऊँगी।
एक बेल की दो तूम्बरी,
एक ही उनकी जात।
एक तो रुलती फिरे गलियन में,
एक सन्तन के हाथ।।
एक ही बेल में दो तूँबड़ी हैं और दोनों की जाति भी एक ही है। लेकिन एक तो गली-गली में लुढ़कती फिरती है और एक संतो के हाथ में पात्र रुप में शोभा पाती है।
एक माटी के दो बर्तन,
एक ही उनकी जात।
एक में घुलते माखन मिसरी,
एक धोबी के घाट।।
एक ही मिट्टी से दो बरतन बने और दोनों की जाति एक ही है, लेकिन एक में तो मक्खन मिसरी घोली जाती है और एक धोबी के घाट पर गंदे कपड़ों को भिगोने के काम में आता है।
आये गये की पनही गांठे,
बैठा सरे बजार।
भूखों को तो भोजन देता,
आखिर जात चमार।।
गुरु रैदास सरे बाजार बैठकर आने-जाने वालों के जूतों की मरम्मत करते है, साथ ज्ञान के भूखे इंसानों को ज्ञान रुपी भोजन भी देते हैं, भले ही लोग उन्हें शूद्र जाति का मानते हैं।
कांख में ते रांपी काढ़ी,
चीरो अपनो गात।
चार युगों का एक जनेऊ,
आठ गांठ नौ तार।।
कहते हैं कि उन्होंने ऐसा चमत्कार दिखाया कि अपनी कांख में दबायी हुई चमड़ा काटनेवाली राँपी निकालकर अपना शरीर चीर दिया और उसमें से अष्टांग योग व नवधा भक्ति से युक्त चारों युगों में मान्य, नाम रुपी अनुपम जनेऊ को दर्शा दिया। इससे स्पष्ट है कि वे सही मानों में द्विज थे।
अपने महल में 'मीरा' उतरी,
घट में गंगा नहाय।
पां पूजूं रैदास गुरु के अमर लोक लिये जाय।।
मीराबाई कहती है कि उन्हीं की कृपा से मिले ज्ञान की अनुभूति करते हुए मैं अपने घट में उतरी और ज्ञान गंगा में गोता लगाकर कृतकृत्य हो गयी। मैं अपने उस परमपूज्य गुरु के चरणों में बार-बार प्रणाम करती हूं, जो अपने भक्तों को सचमुच अमरलोक ले जाते हैं।
प्यारे दशॅन दीजो आय,
तुम बिन रह्यो न जाय।
हे प्यारे प्रभु, आकर दर्शन दीजिए। आपके बिना रहा नहीं जाता है।
जल बिन कमल,
चंद बिन रजनी,
ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी।
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन,
बिरह कलेजा खाय।।
जिस प्रकार जल के बिना कमल, चंद्रमा के बिना रात शोभाहीन होती है, वही हालत तुम्हारे दर्शनों के अभाव में तुम्हारी इस सजनी की हो रही है। दिल मेंं पीड़ा लिए व्याकुल होकर मैं दिन-रात तड़पती फिर रही हूं। आपका विरह मेरा कलेजा खा रहा है।
दिवस न भूख नींद नहिं रैनां,
मुख से कथन न आवै बैना।
कहा करूं कुछ कहत न आवै,
मिलकर तपन बुझाय।।
न तो दिन में भूख लगती है, न तो रात में नींंद आती है। मुख से आवाज भी नहीं निकल पाती है। क्या करूं, कुछ कहते नहीं बनता। अतः मिलकर मेरे हृदय का ताप मिटा दीजिए।
क्यों तरसाओ अंतरजामी,
आन मिलो किरपा कर स्वामी।
'मीरा' दासी जनम जनम की,
परी तुम्हारे पाँय।।
ऐ हृदय की बात जानने वाले मेरे स्वामी, मुझे इतना क्यों तरसा रहे हो? मुझ पर कृपा करके शीध्र ही मिल जाओ। मीराबाई कहती हैं कि मैं जन्म-जन्म की तुम्हारी दासी तुम्हारे चरणों में पड़ी हुई हूं!
री मेरे पार निकस गया,
सतगुरु मारया तीर।।
बिरह भाल लागी उर अन्दर,
ब्याकुल भया सरीर।।
मीराबाई कहती है कि सतगुरु ने मुझ में ऐसा ज्ञान रुपी तीर मारा कि वह मेरे हृदय के आर-पार हो गया। अब मेरे हृदय में उनके विरह का जो भाला लगा है, वह बड़ा दर्द कर रहा है और मेरा शरीर बड़ा बेकल हो रहा है।
इत उत चित्त चलै नहिं कबहुँ,
डारी प्रेम जंजीर।।
कै जाणे मेरो प्रीतम प्यारो,
और न जाणै पीर।।
ऐसी प्रेम ज़ंजीर से मुझे बांध दिया है कि मेरा चित्त उनके अतिरिक्त और कहीं चलायमान नहीं होता। मेरे विरह की पीड़ा को मेरे प्रीतम प्रभु ही जानते हैं, और कोई नहीं जानकहा
कहा करुँ मेरो बस नहिं सजनी,
नैन झरत दोउ नीर।
'मीरा ' कहे प्रभु तुम मिलियां बिन,
प्राण धरत नहिं धीर।।
हे सखी, मेरा वश नहीं चलता, मेरे इन दोनों नैनो से अश्रु छलक रहे हैं। हे प्रभु, आपसे मिले बिना मेरे इन प्राणों को धीरज नहीं बंधता।
हेरी मैं तो प्रेम दीवानी,
मेरो दर्द न जाने कोय।।
ऐ सखी, मैं तो प्रेम की दीवानी हो गयी हूं। मेरे दिल का दर्द कोई नहीं जानता।
सूली ऊपर सेज हमारी,
किस बिध सोना होय।
गगल मंडल पर सेज पिया की,
किस बिध मिलना होय।।
मेरी सेज विरह की सूली पर लगी है। अब भला ऐसी सेज पर मैं कैसे सोऊं ? मेरे पिया की सेज गगन मंडल के ऊपर सजी है। वहां तक कैसे पहुंचूं, उनसे मेरा मिलन किस प्रकार हो, दिल में इसी बात की बेचैनी है।
घायल की गति घायल जानै,
कि जिन लागी होय।
जौहरी की गति जौहरी जानै,
कि जिन जौहर होय।।
मेरे कहने से कोई मेरे दिल के दर्द को समझ नहीं पाएगा। घायल की गति घायल ही जानता है। या फिर वे जिनमें अपने इष्ट से मिलने की लगन लगी हो। जौहरी, यानी जीते जी स्वयं चित्ता बनाकर जल मरने वाली स्त्री का दुख कोई जौहर करनेवाली ही जान सकती है। दूसरा कोई नहीं।
दरद की मारी बन बन डोलूं,
बैद मिल्यो नहीं कोय।
'मीरा' की प्रभु पीर मिटै,
जब बैद सांवलिया होय।।
अपने प्रियतम के विरह की पीड़ा से व्याकुल होकर मैं वन-वन भटक रही हूं। अब तक ऐसा कोई वैद्य नहीं मिला जो मेरी पीड़ा दूर कर दे। मीराबाई कहती हैं कि मेरे हृदय की पीड़ा तभी शांत होगी जब मेरे वैद्य, मेरे प्रियतम प्रभु होंगे।
माई मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हौरो साँचो प्रीतम,
देखत रुप लुभाऊँ।।
प्रभु की दीवानी मीरा उनके मोहक स्वरुप पर लुभा गयी हैं और अपनी माँ से कहती है कि मैं तो उन्हीं के घर जाऊँगी। वही मेरे सच्चे प्रियतम है। उनका रूप देखते ही मैं मुग्ध हो गयी हूं।
रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ,
भोर भये उठि आऊँ।
रैण दिना वाके संग खेलूं,
ज्यूं त्यूं ताहि रिझाऊँ।।
रात होते ही मै उनके पास चली जाती हुं और सुबह होने पर वापिस आ जाती हूं। दिन-रात मैं उन्हीं के संग खेलती हूं और जैसे-तैसे उन्हें रिझाने का प्रयत्न करती हूं।
जो पहिरावै सोई पहिरूँ,
जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उनकी प्रीत पुराणी,
उण बिन पल न रहाऊँ।।
वे जो मुझे पहनने के लिए दे देते हैं, वही मैं पहनती हूं और जो खिलाते हैं, वही खाती हूं। मेरी और उनकी प्रीति बहुत पुरानी है। उनके बिना एक पल भी मैं नहीं रह सकती।
जहां बैठावे तितही बैठूं,
बेचै तो बिक जाऊँ।
'मीरा' के प्रभु गिरधर नागर,
बार बार बलि जाऊँ।।
जहां वे मुझे बैठाते हैं, वहीं मैं बेठती हूं। यहां तक कि यदि वह मुझे बेच दें तो मुझे बिक जाने में भी कोई आपत्ति नहीं है। मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी तो स्वयं प्रभु ही हैं, मैं उन पर बार-बार बलिहारी जाती हूं।
मोहे गुरु मिले रैदास,
सास घर ना जाऊँ।।
समय के सच्चे सदगुरु को पाकर राज रानी मीरा बहुत प्रसन्न हो गयीं और बोली कि मैं अब अपनी सास के घर न जाऊँगी।
एक बेल की दो तूम्बरी,
एक ही उनकी जात।
एक तो रुलती फिरे गलियन में,
एक सन्तन के हाथ।।
एक ही बेल में दो तूँबड़ी हैं और दोनों की जाति भी एक ही है। लेकिन एक तो गली-गली में लुढ़कती फिरती है और एक संतो के हाथ में पात्र रुप में शोभा पाती है।
एक माटी के दो बर्तन,
एक ही उनकी जात।
एक में घुलते माखन मिसरी,
एक धोबी के घाट।।
एक ही मिट्टी से दो बरतन बने और दोनों की जाति एक ही है, लेकिन एक में तो मक्खन मिसरी घोली जाती है और एक धोबी के घाट पर गंदे कपड़ों को भिगोने के काम में आता है।
आये गये की पनही गांठे,
बैठा सरे बजार।
भूखों को तो भोजन देता,
आखिर जात चमार।।
गुरु रैदास सरे बाजार बैठकर आने-जाने वालों के जूतों की मरम्मत करते है, साथ ज्ञान के भूखे इंसानों को ज्ञान रुपी भोजन भी देते हैं, भले ही लोग उन्हें शूद्र जाति का मानते हैं।
कांख में ते रांपी काढ़ी,
चीरो अपनो गात।
चार युगों का एक जनेऊ,
आठ गांठ नौ तार।।
कहते हैं कि उन्होंने ऐसा चमत्कार दिखाया कि अपनी कांख में दबायी हुई चमड़ा काटनेवाली राँपी निकालकर अपना शरीर चीर दिया और उसमें से अष्टांग योग व नवधा भक्ति से युक्त चारों युगों में मान्य, नाम रुपी अनुपम जनेऊ को दर्शा दिया। इससे स्पष्ट है कि वे सही मानों में द्विज थे।
अपने महल में 'मीरा' उतरी,
घट में गंगा नहाय।
पां पूजूं रैदास गुरु के अमर लोक लिये जाय।।
मीराबाई कहती है कि उन्हीं की कृपा से मिले ज्ञान की अनुभूति करते हुए मैं अपने घट में उतरी और ज्ञान गंगा में गोता लगाकर कृतकृत्य हो गयी। मैं अपने उस परमपूज्य गुरु के चरणों में बार-बार प्रणाम करती हूं, जो अपने भक्तों को सचमुच अमरलोक ले जाते हैं।
प्यारे दशॅन दीजो आय,
तुम बिन रह्यो न जाय।
हे प्यारे प्रभु, आकर दर्शन दीजिए। आपके बिना रहा नहीं जाता है।
जल बिन कमल,
चंद बिन रजनी,
ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी।
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन,
बिरह कलेजा खाय।।
जिस प्रकार जल के बिना कमल, चंद्रमा के बिना रात शोभाहीन होती है, वही हालत तुम्हारे दर्शनों के अभाव में तुम्हारी इस सजनी की हो रही है। दिल मेंं पीड़ा लिए व्याकुल होकर मैं दिन-रात तड़पती फिर रही हूं। आपका विरह मेरा कलेजा खा रहा है।
दिवस न भूख नींद नहिं रैनां,
मुख से कथन न आवै बैना।
कहा करूं कुछ कहत न आवै,
मिलकर तपन बुझाय।।
न तो दिन में भूख लगती है, न तो रात में नींंद आती है। मुख से आवाज भी नहीं निकल पाती है। क्या करूं, कुछ कहते नहीं बनता। अतः मिलकर मेरे हृदय का ताप मिटा दीजिए।
क्यों तरसाओ अंतरजामी,
आन मिलो किरपा कर स्वामी।
'मीरा' दासी जनम जनम की,
परी तुम्हारे पाँय।।
ऐ हृदय की बात जानने वाले मेरे स्वामी, मुझे इतना क्यों तरसा रहे हो? मुझ पर कृपा करके शीध्र ही मिल जाओ। मीराबाई कहती हैं कि मैं जन्म-जन्म की तुम्हारी दासी तुम्हारे चरणों में पड़ी हुई हूं!
री मेरे पार निकस गया,
सतगुरु मारया तीर।।
बिरह भाल लागी उर अन्दर,
ब्याकुल भया सरीर।।
मीराबाई कहती है कि सतगुरु ने मुझ में ऐसा ज्ञान रुपी तीर मारा कि वह मेरे हृदय के आर-पार हो गया। अब मेरे हृदय में उनके विरह का जो भाला लगा है, वह बड़ा दर्द कर रहा है और मेरा शरीर बड़ा बेकल हो रहा है।
इत उत चित्त चलै नहिं कबहुँ,
डारी प्रेम जंजीर।।
कै जाणे मेरो प्रीतम प्यारो,
और न जाणै पीर।।
ऐसी प्रेम ज़ंजीर से मुझे बांध दिया है कि मेरा चित्त उनके अतिरिक्त और कहीं चलायमान नहीं होता। मेरे विरह की पीड़ा को मेरे प्रीतम प्रभु ही जानते हैं, और कोई नहीं जानकहा
कहा करुँ मेरो बस नहिं सजनी,
नैन झरत दोउ नीर।
'मीरा ' कहे प्रभु तुम मिलियां बिन,
प्राण धरत नहिं धीर।।
हे सखी, मेरा वश नहीं चलता, मेरे इन दोनों नैनो से अश्रु छलक रहे हैं। हे प्रभु, आपसे मिले बिना मेरे इन प्राणों को धीरज नहीं बंधता।
हेरी मैं तो प्रेम दीवानी,
मेरो दर्द न जाने कोय।।
ऐ सखी, मैं तो प्रेम की दीवानी हो गयी हूं। मेरे दिल का दर्द कोई नहीं जानता।
सूली ऊपर सेज हमारी,
किस बिध सोना होय।
गगल मंडल पर सेज पिया की,
किस बिध मिलना होय।।
मेरी सेज विरह की सूली पर लगी है। अब भला ऐसी सेज पर मैं कैसे सोऊं ? मेरे पिया की सेज गगन मंडल के ऊपर सजी है। वहां तक कैसे पहुंचूं, उनसे मेरा मिलन किस प्रकार हो, दिल में इसी बात की बेचैनी है।
घायल की गति घायल जानै,
कि जिन लागी होय।
जौहरी की गति जौहरी जानै,
कि जिन जौहर होय।।
मेरे कहने से कोई मेरे दिल के दर्द को समझ नहीं पाएगा। घायल की गति घायल ही जानता है। या फिर वे जिनमें अपने इष्ट से मिलने की लगन लगी हो। जौहरी, यानी जीते जी स्वयं चित्ता बनाकर जल मरने वाली स्त्री का दुख कोई जौहर करनेवाली ही जान सकती है। दूसरा कोई नहीं।
दरद की मारी बन बन डोलूं,
बैद मिल्यो नहीं कोय।
'मीरा' की प्रभु पीर मिटै,
जब बैद सांवलिया होय।।
अपने प्रियतम के विरह की पीड़ा से व्याकुल होकर मैं वन-वन भटक रही हूं। अब तक ऐसा कोई वैद्य नहीं मिला जो मेरी पीड़ा दूर कर दे। मीराबाई कहती हैं कि मेरे हृदय की पीड़ा तभी शांत होगी जब मेरे वैद्य, मेरे प्रियतम प्रभु होंगे।
माई मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हौरो साँचो प्रीतम,
देखत रुप लुभाऊँ।।
प्रभु की दीवानी मीरा उनके मोहक स्वरुप पर लुभा गयी हैं और अपनी माँ से कहती है कि मैं तो उन्हीं के घर जाऊँगी। वही मेरे सच्चे प्रियतम है। उनका रूप देखते ही मैं मुग्ध हो गयी हूं।
रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ,
भोर भये उठि आऊँ।
रैण दिना वाके संग खेलूं,
ज्यूं त्यूं ताहि रिझाऊँ।।
रात होते ही मै उनके पास चली जाती हुं और सुबह होने पर वापिस आ जाती हूं। दिन-रात मैं उन्हीं के संग खेलती हूं और जैसे-तैसे उन्हें रिझाने का प्रयत्न करती हूं।
जो पहिरावै सोई पहिरूँ,
जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उनकी प्रीत पुराणी,
उण बिन पल न रहाऊँ।।
वे जो मुझे पहनने के लिए दे देते हैं, वही मैं पहनती हूं और जो खिलाते हैं, वही खाती हूं। मेरी और उनकी प्रीति बहुत पुरानी है। उनके बिना एक पल भी मैं नहीं रह सकती।
जहां बैठावे तितही बैठूं,
बेचै तो बिक जाऊँ।
'मीरा' के प्रभु गिरधर नागर,
बार बार बलि जाऊँ।।
जहां वे मुझे बैठाते हैं, वहीं मैं बेठती हूं। यहां तक कि यदि वह मुझे बेच दें तो मुझे बिक जाने में भी कोई आपत्ति नहीं है। मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी तो स्वयं प्रभु ही हैं, मैं उन पर बार-बार बलिहारी जाती हूं।
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