राजा कला के शोखीन थे। उनके संग्रहों में विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों का बडा संग्रह था। दूर दूर से उन्होंने संग्रहों के लिए हाथी, घोड़े, मोर, गरुड़, बाघ, शेर जैसे विभिन्न मूर्तियों मंगवाते थे। उनके पास देव-देवियों की तो अनगिनत मूर्तियाँ थी।
एक दिन एक दुसरे राज्य के राजवी ने राजा को मानवीय की बहुत सुंदर कलाकृति भेट दी।
वो बिलकुल मानव जैसी लग रही थी मूर्ति। वो मूर्ति पाकर राजा को लगा की उसका संग्रहालय धन्य हो गया।
उत्साह में आकर वो संग्रहालय का लोगो के बीच प्रदर्शन का आयोजन करना तय किया।
पर जिसदिन प्रदर्शन आयोजित करना था उस के एक दिन पहले एक दुर्घटना घटी।
उसने नौकरोंं को प्रदर्शन की तमाम मूर्तियों की सफाई करने का र्निदेश दिया। नौकरों बहुत ध्यान से सफाई कर रहे थे। वही एक नौकर की गलती से वह मानवमूर्ति गिर गयीं और गिरने के साथ ही वह श्रेष्ठतम मूर्ति का एक हाथ तूट गया।
बिचारे नौकर के डर का पार न था। राजा को जब इस बात का पता चला तो वह क्रोधित हो गये। उसने फरमान किया की जिस समय प्रदर्शन तय हुआ उस समय प्रदर्शन जरूर होगा, पर राजा खुद की कलाकृतियों की क्या किंमत लगाते है ये बताने के लिए राजा उसी समय उस नौकर का हाथ कटवा देगें।
प्रदर्शन शुरू हुआ लोगो में सन्नाटा छा गया।
उस नौकर को बुलाया गया। वो डरा हुआ राजा समक्ष हाजिर हुआ।
राजा ने आदेश दिया की जिसने मूर्ति का हाथ तोड़ा उसका हाथ काट दो। इस राज्य की कलाकृति को संभाल नहीं सकता उनको सजा तो मिलेगी ही। मूर्ति का हाथ तोडऩे वाले का भी हाथ रह नहीं सकता ये राज्य के सभी के लिए ये संदेश हैं।
जब नौकर का हाथ काट रहे थे तब भीड़ में से एक आवाज आयी 'रूक जाओ राजन् !'
सबकी उस ओर नजर गयी। भगवान बुध्द्व का एक भिक्षुक सेवक आगे आके पूछ रहा था : 'राजन् ! कोनसे अपराध के लिए इस सेवक को कठिन सजा दी जा रही है ?'
राजा ने कहा : 'उसने मूर्ति का हाथ तोड़ दिया है।'
भिक्षुक ने कहा : 'राजन् ! मूर्ति का हाथ एक मानव ने बनाया जबकि मानव का हाथ भगवानने बनाया। पूरा मानव एक भगवान की ही कलाकृति हैं। तुम खुद को कलाकार समझते हो तो हे राजन् ! जरा इतना तो सोचो कि मानव की कलाकृति नष्ट हुयी इसलिए क्या ईश्वर की कलाकृति नष्ट करना सही हैं ?'
भिक्षुक ने आगे कहा, 'राजन् , एक मानव की मूर्ति तो फिर से बन सकती है, पर क्या ईश्वर की कलाकृति एकबार नष्ट होकर फिर से बन सकती हैंं ?'
भिक्षुक के इन शब्दों ने राजा की आँख खोल दी तब भिक्षुक ने साफ-साफ कह दिया : राजन् ! सबसे बड़ी कला तो माफ करने की हैं। गुस्सा करके सजा देना तो सामान्य बात है, पर उदारता से माफी देनेवाला सच्चा कलाकार हैं।
राजा को अब बात समझ में आ चुकी थी। उसने भिक्षुक और नौकर से माफी मागी।
एक दिन एक दुसरे राज्य के राजवी ने राजा को मानवीय की बहुत सुंदर कलाकृति भेट दी।
वो बिलकुल मानव जैसी लग रही थी मूर्ति। वो मूर्ति पाकर राजा को लगा की उसका संग्रहालय धन्य हो गया।
उत्साह में आकर वो संग्रहालय का लोगो के बीच प्रदर्शन का आयोजन करना तय किया।
पर जिसदिन प्रदर्शन आयोजित करना था उस के एक दिन पहले एक दुर्घटना घटी।
उसने नौकरोंं को प्रदर्शन की तमाम मूर्तियों की सफाई करने का र्निदेश दिया। नौकरों बहुत ध्यान से सफाई कर रहे थे। वही एक नौकर की गलती से वह मानवमूर्ति गिर गयीं और गिरने के साथ ही वह श्रेष्ठतम मूर्ति का एक हाथ तूट गया।
बिचारे नौकर के डर का पार न था। राजा को जब इस बात का पता चला तो वह क्रोधित हो गये। उसने फरमान किया की जिस समय प्रदर्शन तय हुआ उस समय प्रदर्शन जरूर होगा, पर राजा खुद की कलाकृतियों की क्या किंमत लगाते है ये बताने के लिए राजा उसी समय उस नौकर का हाथ कटवा देगें।
प्रदर्शन शुरू हुआ लोगो में सन्नाटा छा गया।
उस नौकर को बुलाया गया। वो डरा हुआ राजा समक्ष हाजिर हुआ।
राजा ने आदेश दिया की जिसने मूर्ति का हाथ तोड़ा उसका हाथ काट दो। इस राज्य की कलाकृति को संभाल नहीं सकता उनको सजा तो मिलेगी ही। मूर्ति का हाथ तोडऩे वाले का भी हाथ रह नहीं सकता ये राज्य के सभी के लिए ये संदेश हैं।
जब नौकर का हाथ काट रहे थे तब भीड़ में से एक आवाज आयी 'रूक जाओ राजन् !'
सबकी उस ओर नजर गयी। भगवान बुध्द्व का एक भिक्षुक सेवक आगे आके पूछ रहा था : 'राजन् ! कोनसे अपराध के लिए इस सेवक को कठिन सजा दी जा रही है ?'
राजा ने कहा : 'उसने मूर्ति का हाथ तोड़ दिया है।'
भिक्षुक ने कहा : 'राजन् ! मूर्ति का हाथ एक मानव ने बनाया जबकि मानव का हाथ भगवानने बनाया। पूरा मानव एक भगवान की ही कलाकृति हैं। तुम खुद को कलाकार समझते हो तो हे राजन् ! जरा इतना तो सोचो कि मानव की कलाकृति नष्ट हुयी इसलिए क्या ईश्वर की कलाकृति नष्ट करना सही हैं ?'
भिक्षुक ने आगे कहा, 'राजन् , एक मानव की मूर्ति तो फिर से बन सकती है, पर क्या ईश्वर की कलाकृति एकबार नष्ट होकर फिर से बन सकती हैंं ?'
भिक्षुक के इन शब्दों ने राजा की आँख खोल दी तब भिक्षुक ने साफ-साफ कह दिया : राजन् ! सबसे बड़ी कला तो माफ करने की हैं। गुस्सा करके सजा देना तो सामान्य बात है, पर उदारता से माफी देनेवाला सच्चा कलाकार हैं।
राजा को अब बात समझ में आ चुकी थी। उसने भिक्षुक और नौकर से माफी मागी।
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